बिरसा मुंडा: आदिवासी नायक और स्वतंत्रता सेनानी
बिरसा मुंडा (15 नवंबर 1875 - 9 जून 1900) भारत के झारखंड प्रांत के मुंडा आदिवासी समुदाय के एक महान नेता, स्वतंत्रता सेनानी और सामाजिक सुधारक थे। वे ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन और जमींदारों के अत्याचारों के खिलाफ 'उलगुलान' (क्रांति) नामक विद्रोह के प्रणेता थे, जिसने आदिवासी अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष किया। आज, 15 नवंबर 2025 को उनकी 150वीं जयंती मनाई जा रही है, जो आदिवासी गौरव और प्रतिरोध की भावना को जीवंत करती है।
प्रारंभिक जीवन
जन्म: 15 नवंबर 1875 को बंगाल प्रेसीडेंसी (वर्तमान झारखंड) के उलीहातू गांव में मुंडा परिवार में जन्मे। उनके पिता सुगना मुंडा और माता कर्मी हातु (या करमी मुंडा) थीं।
बचपन से ही वे बुद्धिमान और जिज्ञासु थे। उन्होंने खरसावां के एक मिशनरी स्कूल में शिक्षा प्राप्त की, जहां ईसाई धर्म का प्रभाव पड़ा, लेकिन बाद में उन्होंने मिशनरियों के धर्मांतरण प्रयासों का विरोध किया।
संघर्ष और उलगुलान
1890 के दशक में, बिरसा ने मुंडा और ओरांव आदिवासियों को एकजुट किया। ब्रिटिश सरकार और जमींदारों द्वारा आदिवासी भूमि पर कब्जा, कर वसूली और संस्कृति पर हमले के खिलाफ उन्होंने विद्रोह का बिगुल फूंका।
1899-1900 में 'उलगुलान' विद्रोह चला, जिसमें हजारों आदिवासी शामिल हुए। बिरसा ने 'बिरसैत' धर्म की स्थापना की, जो आदिवासी परंपराओं और ईसाई तत्वों का मिश्रण था, तथा स्वयं को 'भगवान' घोषित किया।
उनका नारा था: "अबुआ राज एते जना, महारानी राज तुड़ू जना" (हमारा राज कायम हो, रानी का राज समाप्त हो)।
गिरफ्तारी और बलिदान
3 फरवरी 1900 को ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। रांची जेल में कैद के दौरान, केवल 25 वर्ष की आयु में 9 जून 1900 को उनकी मृत्यु हो गई। आधिकारिक रूप से चिकित्सकीय कारण बताया गया, लेकिन संदेह है कि यह हत्या थी।
विरासत
बिरसा मुंडा को 'धरती आबा' (पृथ्वी का पिता) कहा जाता है। उनकी स्मृति में झारखंड में कई स्मारक हैं, और 2021 से 15 नवंबर को 'जनजातीय गौरव दिवस' के रूप में मनाया जाता है।
उनकी 150वीं जयंती पर केंद्र सरकार ने विशेष कार्यक्रम आयोजित किए, जो आदिवासी संस्कृति और वनवासी प्रतिरोध को सम्मानित करते हैं।
बिरसा मुंडा का जीवन आदिवासी अस्मिता, भूमि अधिकार और स्वतंत्रता की प्रेरणा है। अधिक जानने के लिए, विकिपीडिया या सरकारी साइट्स देखें।
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