जूठन से उत्पन्ना देवी को श्री महाभैरव शिव का वरदान प्राप्त हुआ, की आपकी साधना करने वाला व्यक्ति परमज्ञान को प्राप्त होगा !! ज्ञान के देवता श्री गणपति है और परमज्ञान तभी प्रकटता है जब भीतर का सब अंधेरा परम प्रकाशित ज्ञान के उजाले की ओर ले जाए!! और इस तरह परमज्ञान की ओर ले जाने वाली देवी महामाया को शास्त्रों में तांत्रिक सरस्वती के तौर पे उल्लेखित किया गया।
जूठन से उत्पन्ना देवी को श्री महाभैरव शिव का वरदान प्राप्त हुआ, की आपकी साधना करने वाला व्यक्ति परमज्ञान को प्राप्त होगा !! ज्ञान के देवता श्री गणपति है और परमज्ञान तभी प्रकटता है जब भीतर का सब अंधेरा परम प्रकाशित ज्ञान के उजाले की ओर ले जाए!! और इस तरह परमज्ञान की ओर ले जाने वाली देवी महामाया को शास्त्रों में तांत्रिक सरस्वती के तौर पे उल्लेखित किया गया।
जो बाद में नवम महाविद्या “श्री मातंगी” की अंगिनी के तौर पे भी शाक्त संप्रदाय में प्रचलित हुई। त्वरित और उच्चकोटि का ज्ञान प्राप्त करने के लिए श्री महाविद्या मातंगी को साधना का वर्णन मंत्रमहोदधि और श्री कालिकापुराण करता है!! वीणा वाद्य को धारण करते हुए देवी श्री सरस्वती और ब्रम्हांड के नाद का समर्थन करती है, वहीं पाश और अंकुश को धारण करते हुए श्री गणपति का प्रतिनिधत्व करती है, हाथ में ईख को धारण करते हुए पौरुष का प्रतिनिधत्व करती हुई और पद्म और अनार को धारण करते हुए ज्ञान के महागर्भ और औषधीय ज्ञान का निरूपण किया गया है।
सब से रोचक बात यह है के श्री मातंगी को नील सरस्वती के तौर पे तारा साधक, और गणपति साधक पहचानते है, और श्री तारा का एक अंगरूप भी नील सरस्वती के नाम से जाना जाता है। श्री मातंगी और तारा एक ही शक्ति की दो प्रकृति का परिचय देते हैं, वहीं बौद्ध तंत्र के वज्रयान में श्री तारा को नील सरस्वती के तौर पे दिखाया और शोधित किए जाने का उल्लेख प्राप्त है।
श्री मातंगी देवी के उद्भव से जुड़ी द्वितीय कथा का वर्णन श्री मातंग ऋषि के जीवनी से भी प्राप्त होता है। मातंग ऋषि जो की अपने आप में एक सिद्ध श्री विद्या साधक थे और उनको श्री भगवती ललितांबिका की कृपा प्राप्त थी। सकल जगत की बिजशक्ति श्री ललितादेवी की कृपा से उनका हृदय अति आनंद की अनुभूति करता था। इसी आनंद को सकल जगत में फैलाने के विचार से उनको अपने मन में एक श्री भावना का जन्म हुआ, जिसका तात्पर्य था की में सकल ब्रम्हांड को अपने नियंत्रण में अगर ला पाया तो सकल जीव और निर्जीव जगत में श्री विद्या की साधना का आनंद में स्वयं के आनंद से फैला सकता हूं। ऐसे विचार से प्रवृत्त होकर उन्होंने श्री विद्या साधना की दोबारा शुरुआत की। जिसमे प्रमुख रूप से श्री यंत्र का ध्यान केंद्रित कर वह श्री देवी के बिंदु रूप को जानने का प्रयास करने लगे।
विचार तो सात्विक था उनका लेकिन फिर भी सकल जगत पे अधिपत्य प्राप्त करने की महत्वकांक्षा को सिद्ध होने के लिए कई सहस्त्र वर्षो का समय लगा । और अंत में श्री देवी ललितात्रिपुरसुंदरी का प्राकट्य उनके सामने हुआ !!
महामुनि मातंग की इच्छा को सुनने के बाद भी देवी ने विपरीत वरदान दे दिया। भक्ति की पराकाष्ठा यानी श्री विद्या!! सम्पूर्ण ब्रम्हांड की सकल विधाओं का निचोड़ यानी श्री विद्या। तंत्र शिरोमणि के तौर पे जाने वाली विधा यानी श्री विद्या!! और क्या हुआ ?? श्री विद्या की उस परम क्षण में जब साधक स्वयं श्री त्रिपुरसुंदरी के भाव में अपने आप का अस्तित्व खो देता है और तब उससे जब उसकी इच्छा के विपरित फल मिले तब ??
लेकिन श्री देवी की लीला का अंदाजा लगाना एक असंभव कार्य है, उन्होंने वर दिया के सकल जगत के तंत्रों और परमज्ञान को धारण करने वाली कन्या का जन्म आपके द्वारा होगा, और वह मातंगी कहलाएगी।
यहां समझने और गौर करने वाली बात यह है, में फिर से कहूंगा के साधकों और तंत्र में प्रवृत्त होने वाले सभी व्यक्तियों को यह बेहद ध्यान से पढ़ना चाहिए और अपने जीवन से जोड़ कर देखना चाहिए, की श्री मातंगी जो की स्वयं ज्ञान, परमज्ञान, आदि और परा विज्ञान की देवी है। जिसके प्रकट या सिद्ध हो जाने मात्र से साधक के सभी विचारों का चाहे तो सकारात्मक हो या नकारात्मक , सभी वृत्तियों का चाहे वह सात्विक हो या तामसिक…सब कुछ नष्ट हो जाता है… सब कुछ विलीन हो जाता है..रहती है तो परम चेतना…शाश्वत चेतना और कभी नही मिटने वाला ज्ञान।
यही है “श्री उच्चिष्ठ चांडाली” !! जहां कुछ नही बचता सब कुछ एक शाश्वत और स्थिर प्रकाश में विलीन हो जाता है। और साधक एक सर्वोच्च अवस्था में पहुंच जाता है। बिल्कुल स्मशान की अग्नि की तरह जिस प्रचंड अग्नि में संसार, अहंकार,मोह और शक्ति और आपका सत्य भी और असत्य भी !! सब कुछ जल जाता हैं बस अंत में रहती है एक चेतना !! आपके विचार और आपका कॉस्मिक अस्तित्व। यानी की ब्रम्हांडीय अस्तित्व। अंग्रेजी में कहे तो कॉस्मिक प्रेजेंस !!
श्री विद्या या श्री मातंगी या कह लीजिए श्री उच्छिष्ट गणपति के साथ श्री उच्छिष्ट चांडालिन की साधना से साधक संसार के उटपटांग व्याख्याओं से परे हो कर ज्ञान की चरमसीमा पर पहुंच जाता है। उसकी यशोगाथा चिरकाल तक संसार सुनता और सुनाता है। शायद यहीं अमरत्व की बात है। अमर हो जाने का सिद्धांत शायद यहीं है। अमरनाथ की गुफाओं से ले कर रावण के अमर बनने के प्रयास और हिरन्यकश्यपु के पुरुषार्थ तक !!
ऋषि मातंग की भक्ति और प्रयास और विश्वास और श्री ललितादेवी की कृपा से श्री महाविद्या मातंगी का प्रदुर्भव्व हुआ, और श्री मातंग ऋषि के नाम से उनको श्री मातंगी का नाम मिला!! और अब सृष्टि के अंत तक मातंग ऋषि का नाम ज्ञान के रूप में इस धरती पर रहेगा।
वापस ऊपर वर्णित उस कथा का अनुसंधान कीजिए! जिसमे मातंग ऋषि सकल सृष्टि पे अधिपत्य का भाव लिए श्री विद्या की साधना कर रहे थे !! "कई बार आधिपत्य का अर्थ मात्र और मात्र भौतिक सत्ता प्राप्त कर लेने जितना सीमित नहीं होता! ज्ञान के अधिपति बनने मात्र से भी समस्त जगत को अपने आधीन बनाया जा सकता है"। ऋषि मातंग और देवी मातंगी के प्राकट्य की यह कथा इसी सत्य को पुनःस्थापित करने का कार्य कर रही है।
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संपादक श्री दयाशंकर गुुुप्ता जी
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